अररिया (गणपत कुमार) पिछले हाल के दिनों में जिले में कुछ पत्रकारों पर हमले हुए। ये पत्रकारों पर हमले कहीं न कहीं प्रेस एवं प्रशासन पर सवालिया निशान लगा दिया। प्रेस पर इसलिए क्योंकि यहाँ वो वाली कहावत चरितार्थ हो रही है कि "अक्सर बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है।"

प्रशासन पर इसलिए क्योंकि घटना के बाद पुलिस का काम केवल एफआईआर दर्ज करना हीं प्रतीत होता है।

पहली घटना नरपतगंज थाना क्षेत्र की है जहाँ मिरदोल पंचायत के डीलर द्वारा दो पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार किया गया था जिसमे नरपतगंज थाना में प्रार्थिमिकी दर्ज की गई थी। उधर डीलर ने भी तीन दिन बाद काउंटर केस दर्ज कराया था।

दूसरी घटना भरगामा प्रखंड के शंकरपुर पंचायत की है जहाँ एक पत्रकार की न केवल जमकर पिटाई की गई बल्कि उनके घर घुसकर तोरफोर व लूटपाट भी किया गया।

प्राप्त जानकारी अनुसार बीते 16 मई रविवार को भरगामा थाना क्षेत्र के दैनिक सन्मार्ग अखबार के पत्रकार अंकित सिंह के साथ कुछ व्यक्तियों ने पत्रकार अंकित के साथ दुर्व्यवहार किया। पीड़ित पत्रकार से मिली जानकारी अनुसार उनके घरों में घुस लूटपाट जैसी घटनाओं समेत कई गंभीर घटनाओं को अंजाम दिया गया। जिसकी प्राथमिकी पीड़ित पत्रकार द्वारा दिए गए आवेदन के आधार पर 16 मई को ही भरगामा थाना में दर्ज कर ली गई। इस केस में भी काउंटर केस दर्ज किया गया है।

काउंटर केस अपराधियों के लिए वरदान तो नहीं?

जिले में काउंटर केस अपराधियों के लिए वरदान साबित हो रहा है। अपराधियों द्वारा घटना करने के बाद पहले तो यह देखा जाता है कि कहीं पीड़ित पक्ष केस न कर दे। यदि पीड़ित पक्ष द्वारा केस कर दीया जाता है तो वैसे ही पीछे से बचाव के लिए काउंटर केस भी दर्ज करा दिया जाता है।

काउंटर केश होने से पीड़ित पक्ष पर क्या असर?

काउंटर केस होने से पीड़ित पक्ष पर एक मानसिक दबाव रहता है एवं घटना के गवाह भी खुलकर सामने नहीं आना चाहते। साथ ही कोर्ट में बेल लेने का एक आधार बन जाता है हालांकि यह परिस्थिति पर निर्भर करता है। मुकदमे में अनुचित लाभ लेने के लिए काउंटर केस दर्ज करवाया जाता है।

काउंटर केस दर्ज करते समय नहीं किया जाता विवेक का इस्तेमाल

काउंटर केस दर्ज करते समय यदि पुलिस पदाधिकारी द्वारा स्वविवेक का इस्तेमाल किया जाए एवं निष्पक्ष भावना से केस दर्ज किया जाए तो न्याय का रास्ता आसान हो सकता है किंतु चंद लोभ व दबाव के कारण न्याय का गला घोंटा जा रहा है।

इस घटना में जहां पत्रकारों में एकजुटता नहीं दिख रही है वही भरगामा पुलिस दबंगों पर कानूनी कार्रवाई करने में कोसों व मिलों दूर दिख रही है। पुलिस के ऐसे कारनामे से लगता तो ऐसा है कि दबंग ने पुलिस का मुंह बंद कर दिया है। वहीं पीड़ित पत्रकार के परिजन ने बताया कि दबंगों द्वारा बेटे को सुरक्षित देखने के एवज में मामला को रफा-दफा करने को कहा जा रहा है। अन्यथा बेटे का किडनैप एवं हत्या करने की धमकी दी जा रही है।

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इस मामले में केवल पत्राचार की कार्रवाई हो रही है। चाहे मुख्यमंत्री हो या स्थानीय विधायक या पत्रकार संगठन सभी अपने अपने स्तर से पत्राचार कर अपने अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं। किंतु भरगामा की बहादुर पुलिस के कारनामों का क्या कहना। किसकी हिम्मत की इनसे कोई सवाल कर सके। एक कहावत याद है न कि "जब ऊपरवाला मेहरबान तो गधा पहलवान"। हो भी क्यों नहीं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कोरोना के कारण अनाथ हुए बच्चों को 1500 हर महीने बाँट कर सौभाग्य प्राप्त कर रहे हैं तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पूरी टीम 7 साल के कारनामे गिना रहे हैं।

वहीं केंद्रीय मंत्री वसुंधरा राजे ट्वीट कर पत्रकारों को आमजन की समस्याओं को प्रमुखता से उजागर करने बोल रही है।

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अब सबसे बड़ा सवाल: जब लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकार अगर सुरक्षित नही है तो आम जनता तो फिर भगवान भरोसे है बिहार में।

आखिर सवाल उठता है कि प्रशासन मौन है क्यों? अपराधियो का मनोबल दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। प्रशासन हाथ पर हाथ रख कर बैठी है, या और कोई बड़ी घटना के घटने का इंतज़ार कर रही है।

पत्रकारों पर हमले, आखिर इन सब के जिम्मेदार कौन है? कॉमेंट में जरूर बताएँ।

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