किसी भी संपत्ति को अर्जित करने के बहुत सारे तरीके हैं, जैसे वसीयत, दान, विक्रय, लॉटरी इत्यादि। इनमें से किसी भी तरीके से अगर कोई व्यक्ति संपत्ति प्राप्त करता है तब यह कहा जाता है कि यह उसकी स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति है।
ऐसी संपत्ति के संबंध में कोई भी व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुरूप फैसला ले सकता है। संपत्ति पर उसके बच्चों का उसके जीवित रहते किसी प्रकार का कोई अधिकार नहीं रहता है, क्योंकि ऐसी संपत्ति उसने स्वयं द्वारा अर्जित की है।
यह आर्टिकल आप ए टू जेड गुरुजी डॉट कॉम पर पड़ रहे है।
पैतृक संपत्ति क्या है
महत्वपूर्ण विषय पैतृक संपत्ति का है। स्वयं द्वारा अर्जित संपत्ति के अलावा पैतृक संपत्ति होती है। पैतृक संपत्ति उस संपत्ति को कहा जाता है जो किसी व्यक्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त होती है। ऐसी संपत्ति उसके द्वारा अर्जित नहीं की जाती है या फिर उसे वसीयत नहीं की जाती है, बल्कि कानूनी रूप से उसे उत्तराधिकार में प्राप्त होती है।
संपत्ति के मामले में कानून किसी भी व्यक्ति के रिश्तेदारों को संपत्ति का उत्तराधिकारी बनाता है। अगर कोई व्यक्ति बगैर वसीयत किए मर जाता है तब उसकी संपत्ति उसके उत्तराधिकारियों को मिलती है।
इस मामले में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम दोनों ही लागू होते हैं। मुसलमानों के मामले में उनका अपना शरीयत कानून लागू होता है। हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम और भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम इन दोनों ही अधिनियम में उत्तराधिकारियों के संबंध में स्पष्ट रूप से उल्लेख कर दिया है। एक हिंदू पुरुष के उत्तराधिकारी उसकी विधवा, मां और उसके पुत्र पुत्री होती है। इसी के साथ पुत्र पुत्रियों से होने वाले बच्चे भी अगली तीन पीढ़ियों तक उत्तराधिकारी होते हैं।
यह बात तो स्पष्ट होती है कि किसी भी व्यक्ति को उत्तराधिकार में मिलने वाली संपत्ति को पैतृक संपत्ति कहा जाता है। ऐसी पैतृक संपत्ति कई सदियों से भी चली आ रही होती है, जैसे भारत के कई राज परिवारों की संपत्ति कई सदियों से चली आ रही है और वर्तमान के उत्तराधिकारियों के पास है। ऐसी संपत्ति यह आवश्यक नहीं है कि दो, चार या पांच पीढ़ियों से चली आ रही हो।
जैसे एक व्यक्ति की मौत होती है, उसकी मौत के बाद उसकी संपत्ति जब उसके उत्तराधिकारियों को मिलती है तब वह संपत्ति उसके उत्तराधिकारियों के लिए पैतृक संपत्ति बन जाती है। ऐसी पैतृक संपत्ति में सभी उत्तराधिकारियों का बराबर बराबर का अधिकार होता है। कोई भी उत्तराधिकारी अपनी इच्छा से पैतृक संपत्ति को नहीं बेच सकता है।
जैसे कि एक हिंदू पुरुष के मरने पर उसकी मां, विधवा और बेटे बेटियां उत्तराधिकारी होते हैं। तब बेटे बेटियों के बच्चे भी उत्तराधिकारी होते हैं और उनके बच्चे भी उत्तराधिकारी होते हैं। यहां पर तीन पीढ़ियों तक उत्तराधिकार जाता है। उन तीनों ही पीढ़ियों के लिए वह संपत्ति पैतृक संपत्ति हो जाती है।
पैतृक संपत्ति में बेटा और बेटी दोनों को समान रूप से अधिकार मिलता है। 2005 के पूर्व पैतृक संपत्ति के मामले में बेटा और बेटी को समान रूप से अधिकार नहीं मिलता था परंतु वर्तमान में यह व्यवस्था समाप्त कर दी गई है। आज बेटा और बेटी दोनों को पैतृक संपत्ति में एक जैसा अधिकार मिलता है। जिस प्रकार का अधिकार एक पोते को होता है उसी प्रकार का अधिकार नवासी को भी होता है।
ऐसी पैतृक संपत्ति बेची नहीं जा सकती
ऐसी पैतृक संपत्ति जिसक बंटवारा नहीं हुआ है तथा उसका रजिस्ट्रेशन उसके मूल मालिक के नाम पर है तब उस संपत्ति को बेचा नहीं जा सकता। क्योंकि किसी भी एक उत्तराधिकारी के कहने से संपत्ति नहीं बिकती है।
यह बात जरूर है कि अगर सभी उत्तराधिकारी एक मत हो तब न्यायालय सभी को अलग-अलग हिस्सों में संपत्ति बांट सकती है और संपत्ति का रजिस्ट्रेशन सभी उत्तराधिकारियों के नाम पर अलग अलग किया जा सकता है।
जैसे कि कोई एक खेत किसी व्यक्ति का मालिकाना था। उस व्यक्ति की मौत हो जाती है। उसके बाद उस खेत का उत्तराधिकार उसके बेटों बेटियों के पास चला जाता है। उसके बेटे और बेटियां अपनी जिंदगी में उस खेत के संबंध में कोई भी फैसला नहीं लेते हैं और उनकी भी मौत हो जाती है। तब उन बेटे और बेटियों के उत्तराधिकारियों के पास उस संपत्ति का हक चला जाता है।
वह भी अपने जीवन काल में संपत्ति के संबंध में किसी भी तरह का कोई भी फैसला नहीं लेते हैं और उनकी भी मौत हो जाती है, तब संपत्ति आगे बढ़कर उनके उत्तराधिकारियों को चली जाती है। इस तरह से उस एक खेत के भविष्य में कई उत्तराधिकारी हो जाते हैं।
क्योंकि धीरे-धीर परिवार का विस्तार होता चला जाता है। अगर कोई पीढ़ी पैतृक संपत्ति के संबंध में कोई फैसला नहीं कर पाती है तब उसके उत्तराधिकारी बढ़ते चले जाते हैं और अंत में संपत्ति के कई उत्तराधिकारी हो जाते हैं।
कैसे होता है बंटवारा
पैतृक संपत्ति के बंटवारे के लिए अनेक नियम है। खेती की जमीन का बंटवारा अलग तरह से होता है और शहरी जमीन का बंटवारा अलग तरह से होता है।कोई भी उत्तराधिकारी अपनी हिस्से के बंटवारे के लिए न्यायालय के समक्ष परिवाद प्रस्तुत कर सकता है। लेकिन यहां पर न्यायालय मामले की परिस्थितियों को देखता है और यह जांच करता है कि क्या संपत्ति का बंटवारा करना उचित है और संपत्ति के दूसरे उत्तराधिकारी की बंटवारे के संबंध में क्या राय है।
कोई एक उत्तराधिकारी के कहने पर संपत्ति को तोड़कर उसके हिस्से को नहीं दिया जाता है। न्यायालय ऐसे मामले में बहुमत के प्रश्न को लेकर चलता है। खेती की जमीन का बंटवारा राजस्व न्यायालय में होता है जोकि जिले के कलेक्टर के समक्ष लगती है। जबकि शहरी जमीन का बंटवारा सिविल कोर्ट में होता है जिसका क्षेत्राधिकार जिला न्यायाधीश के पास होता है।
जिला न्यायाधीश ऐसी जमीन के बंटवारे के संबंध में निर्णय लेते हैं। बंटवारे के बाद सभी व्यक्तियों को उनके मिले हिस्से के अनुपात में जमीन को बांट दिया जाता है और उन्हें जमीन का मूल मालिक बना दिया जाता है। फिर यह पैतृक संपत्ति उनकी पैतृक संपत्ति नहीं रह जाती बल्कि उनकी अर्जित संपत्ति बन जाती है।
ऐसी अर्जित संपत्ति के मामले में कोई भी फैसला लेने के लिए व्यक्ति स्वतंत्र नहीं होता है क्योंकि ऐसी संपत्ति में भी उसके उत्तराधिकारियों का अधिकार होता है। अगर उसके कई उत्तराधिकारी हैं तब उनकी सहमति से ही उस संपत्ति के संबंध में कोई फैसला लिया जा सकेगा।
जैसे कि कोई संपत्ति रमेश को अपने पिता से उत्तराधिकार में प्राप्त होती है। संपत्ति रमेश के नाम पर रजिस्टर्ड कर दी जाती है पर यहां पर रमेश संपत्ति के संबंध में फैसला लेने की स्थिति में नहीं होता है। बल्कि रमेश के उत्तराधिकारी जो उसके बच्चे होते हैं वह संपत्ति के संबंध में फैसला लेते हैं। रमेश अकेला कोई निर्णय नहीं ले सकता, अगर उसके बेटा या बेटी हैं तब उनकी भी सहमति ली जाती है और संपत्ति का रजिस्ट्रेशन रमेश के साथ बेटा बेटी के नाम पर भी किया जाएगा।
इन सभी बातों से यह साबित होता है कि पैतृक संपत्ति के मामले में कोई भी व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वतंत्र नहीं होता है। बल्कि उसके सभी उत्तराधिकारी का पैतृक संपत्ति पर समान रूप से हक होता है। वह सभी की इच्छा से ही उस संपत्ति के संबंध में कोई फैसला लिया जा सकता है।
0 Comments
Post a Comment